कब तक दिया की बाती बन
लोगो की जिंदगी को रोशन करुँगी
और खुद पल पल जलूँगी।
कब जो हाथ , मेरी लौ को
भुजने से रोकने के लिए खड़े होने चाहिए
उसी लौ से हाथ सेकना बंद करेंगे।
क्यों भूल गये सब मेने कितने दियो को रोशन किया
याद हैं तो बस वोह कालिक जो मैं पीछे छोड़ गयी।
कोसते भी हैं मुझे
तो वोह लोग जिन्होंने मेरी कालिक तक को नहीं छोड़ा
उसे भी आँखों का काजल बना लिया।
मुझे डर नहीं तेज़ हवाओ का , आंधियो का
डर हैं मुझे तो बस अपनों की दी उस फूँक का।
मे मानती थी की मे रोशन तो आँगन को करती हूँ
पर रहती लोगों की आँखो मे हू।
पर जिन आँखों मै मेरे लिए इज़्ज़त होनि चाहिए
क्यों हो गयी हैं वोह आँखे वैस्यी।
आज नहीं तो कल मे फिर जगमगाऊंगी
उन हाथोँ को जला के जगमगाऊंगी
जिन्होंने मेरी ज्योति को जलने से रोका हैं।
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